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नदी, तालाब और समाज की समझ (River, Pond, and Society)

रवीन्द्र कुमार पाठक


An English Summary of the paper is available at the end of the Hindi version


सारांश


इस लेख में भारत में नदी, तालाब और जल प्रबंधन के इतिहास व परंपरा की, उनमें तह तक व्याप्त सांस्कृतिक महत्त्व के साथ, चर्चा की गई है. इस पर चर्चा की गई है कि प्राचीन भारत के समाज किस तरह से जल का इस्तेमाल कृषि, मत्स्य और रोजमर्रे की गतिविधियों के लिए करते थे. समाज में संतुलन बनाये रखने के लिए पानी को इकट्ठा करना, जैसे झील, कुआं और तालाब बनाना, महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था.


बांधों और नलकूपों जैसी आधुनिक प्रौद्योगिक व्यवस्थाओं के चलते पारंपरिक जल-प्रबंधन के निकायों का महत्त्व कम हो गया है. इस लेख में जोर देकर यह कहा गया है कि इन उपायों को जिंदा रखना ज़रूरी है और साथ में नदियों और तालाबों के आपसी सम्बन्धों की बारीकियों की चर्चा की गई है. बड़ी नदियों के किनारे बसे शहरों में भी पानी की उपलब्धता पक्की करने के लिए बहुत सारे तालाब बनाये जाते थे. लेख जल संग्रह के धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करता है. उदाहरण के लिए इस पर बात की गई है कि कैसे कुछ तालाब कुछ समाजों के लिए पवित्र माने जाते थे और उनकी धार्मिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे. यह भी कहा गया है कि जल संग्रह सामाजिक हैसियत का भी परिचायक होता था. धनी व्यक्ति प्रकृति पर अपने नियंत्रण के प्रतीक के रूप में निजी तालाब बनवाते थे. लेख में पानी पर मालिकाने और उसके चलते समाज में उत्पन्न झगड़ों का भी उल्लेख है. कहा यह गया है कि नदियों और अन्य जल स्रोतों को सामाजिक संसाधन के रूप में देखा जाना आदर्श स्थति है. बहते पानी का लाभ आगे जाकर नीचे की ओर रहने वालों को भी मिलना चाहिए. लेकिन समयांतर में बेईमानी के चलते और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी न महसूस करने के चलते जल प्रबंधन से जुड़ कर पेचीदा परिस्थितियां पैदा होने लगीं और झगड़े होने लगे. लेख में पानी से सम्बंधित शुल्क और कर की सैद्धांतिक चर्चा है. सार यह है कि जल प्रबंधन में नैतिकता का तकाजा होना चाहिए और बरसात से सतत् पुनर्जलसंग्रह का विचार स्पष्ट होना चाहिए. आधुनिक दुनिया में भी जल प्रबंधन से सम्बंधित पारंपरिक उपाय अभ्यास में बने रहने चाहिए.



भारत एक पुराना देश है। यहां के लोग नदी तालाब से ले कर समुद्र तक से लंबे समय से परिचित हैं। खेती, मछली, नाव और जहाज से परिचित हैं तो झील, कुंआ, बावड़ी, लोटा-डोरी, आहर, पईन, खड़ीन, तालाब, पोखर आदि से भी परिचित हैं। घट तो मानव षरीर का ही प्रतिरूप माना गया है। जैसे मनुष्य हैं, वैसे घट। जल, जलाशय और जल भंडार से मानव षरीर से भी अधिक करीबी और बहु आयामी रिश्ता होने के कारण भारतीय लोगों को अपने आपसी संबंधों को संतुलित तथा सामंजस्यपूर्ण रखने के लिए बहुत सारे पैमाने बनाने और समाज में लागू करने पड़े।


बांध और नलकूप वाले आज के जमाने में सामाजिक रिश्तों और समाज संचालन के पारंपरिक मापदंडों की समझ धीरे-धीरे लुप्त सी होती जा रही है और अब स्कूल की किताबों की स्तुतियों में यह बहस भी होने लगी है कि पहले नदी बनी या नहरें? एक बार भारत के कुछ बड़े राजनैतिक चिंतकों ने तर्क दिया कि गंगा तो कई बार बंधी और भगीरथ ने बांध को तोड़ा था, नदी का जल समुद्र में बेकार का जाता है, वगैरह।


नदी एक प्राकृतिक संरचना है। वह स्वयं निर्मित और संचालित होती है। परिवर्तन, छेड़-छाड़ से अन्य संरचनाएं बनती हैं। किसी भी गड्ढे में, चाहे बड़े आकार का हो या छोटे आकार का, उसमें रुका हुआ पानी झील या स्वयं प्रकट जलाषय कहा जाना चाहिए। कृत्रिम रूप से एक, दो, तीन या चारों तरफ से मेड़़ बनाकर अथवा गड्ढा खोदकर जो छोटे-बड़े जलाशय बनाए जाते हैं, उन्हें तालाब, सरोवर, सर, आहर, पोखर, पोखरी आदि नामों से जाना जाता है। ये नाम हिन्दी क्षेत्र के हैं। इसी प्रकार अन्य क्षेत्र में अलग-अलग अन्य नाम भी होंगे।


केवल वर्षा काल में या शरद ऋतु में जहां कहीं जलाशयों में पानी जमा किया जाता है और बाद में पानी निकालकर उसमें खेती की जाती है, उसे आहर, खड़ीन इत्यादि नामों से संबोधित किया जाता है। माना जाता है कि मानव सभ्यता के विकास क्रम में लोगों ने पशुपालन और उसके बाद या उसके साथ-साथ खेती करना सीखा। ‘झूम’ खेती से आगे सभ्यता विकास क्रम में आगे बढ़ने पर जब सिंचाई आधारित खेती मानव षुरू करता है, उस समय दो घटनाएं सहज होती हैं- ‘क’ जब तक जंगल का सफाया नहीं होता है या घास के मैदानों को साफ नहीं किया जाता है तब तक जमीन उपलब्ध नहीं होती है और ‘ख’ ऐसा होते ही वर्षा जल के बहाव में तीव्रता आ जाती है। पानी तेजी से ढाल पर बहने लगता है।


कृत्रिम तालाब के जितने भी प्रकार हैं, इस तीव्र बहाव को रोकने का काम करते हैं और वातावरण में नमी के संधारण में सहायक होते हैं। छोटे-छोटे और बिखरे हुए तालाब अधिक उपयोगी होते हैं तथा खतरा कम पैदा करते हैं। बड़ा जलाशय, चाहे उसका नाम बांध रखें, झील रखें या भोपाल का तालाब रख दें, इनमें अगर टूट-फूट होगी तो जल की मात्रा इतनी अधिक है और नीचे की ओर पर्याप्त ढाल उपलब्ध है कि खतरा होना ही है। पूरे भारत में विविध प्रकार के जलाषय मिलते हैं, जिनमें देष और काल के भेद से अंतर पाया जाता है।


आज के लोग प्रश्न उठाते हैं कि जहां नदियां उपलब्ध हैं, वहां तालाब, सरोवर आदि की क्या आवश्यकता है? कई लोग केवल अपने मन से या सुनी सुनाई बोलते रहते हैं कि गंगा इत्यादि बड़ी नदियों के किनारे बसे शहरों में मानव के उपयोग का पानी सीधे नदी से उपलब्ध होता था और वहां तालाब, सरोवर आदि किसी कृत्रिम जलाशय की उपयोगिता नहीं होती है। यह समझ सही नहीं है बल्कि पुराने बड़े नगरों में अनेक तालाब बावड़ियां हैं तथा कुएं भी पाए जाते रहे हैं, भले ही वे मैदानी क्षेत्र के शहर हों या फिर पठारी क्षेत्र के।


नई पीढ़ी के लोगों को कई पुरानी बातें, संरचनाएँ और सामाजिक व्यवहार समझ में ही नहीं आते। पुराने शहरों में जो नदी के किनारे बसे हों, जैसे, - बनारस, गया, प्रयाग, आदि, वहाँ इतने सारे तालाब बनाने की क्या जरूरत आ पड़ी? उस समय तो नदियाँ स्वच्छ एवं पवित्र थीं। उनका पानी पीने लायक होता था। बरसात में भी उसी जल को साफ कर मिट्टी की गाद बरतन की पेंदी में बिठाकर पिया जाता था। वही जलमार्ग था और राश्ते में मछली भी मिलती थी। आबादी भी दोनों या प्रायः एक किनारे पर धारा के समानांतर बसती थी। ऐसे में भला तालाबों की क्या जरूरत? उससे क्या लाभ? नदी से दूर बसे स्थानों पर तो तालाब की सार्थकता पास में सुविधा से पर्याप्त जल मिलने में है।


सुनने में भले अटपटा लगे परंतु सचाई यह है कि इन शहरों के पुराने मुहल्लों में से भी कई मुहल्लों से प्राचीन उसके तालाब हैं। पहले तालाब बनाए गए? उसके कई वर्ष बाद आबादी बसी। आबादी तब बसाई गई जब इन तालाबों से निकाली गई मिट्टी की परतें वर्षा से भींग कर सख्त मकान बनाने लायक हो गईं। मुलायम मिट्टी में नीव नहीं बनाई जा सकती थी।


दरअसल आबादी बसने के पूर्व समझदार वास्तुविद चार पाँच बातों का पूरा ध्यान रखते थे। आबादी किस प्रकार की होगी, उनके रहन-सहन के अनुरूप कितना पानी किस रूप में अपेक्षित होगा और सबसे बड़ी बात कि घर का गंदा पानी एवं वर्षाजल किस प्रकार तीव्र गति से बहकर निकल सकेगा? यह जानना रोचक होगा कि बनारस या विंध्याचल जैसे तीर्थ के पक्के मुहल्लों में जहाँ सड़क एवं गलियाँ पक्की हों प्रतिदिन उनके नालियों एवं सड़कों की ऐसी धुलाई होती थी कि नाली के नीचे का पत्थर साफ-साफ दिखाई देता था। यह धुलाई भी चमड़े की थैली में पानी भरकर सफाई मजदूर स्वयं करते थे। सन् 1970-72 तक बनारस में ऐसी सफाई-धुलाई जारी थी और इन मुहल्लों में मच्छरदानी आम चलन में नहीं थी। मच्छर न के बराबर थे। ऐसी धुलाई के लिये नालियों का तीव्र ढाल वाला होना जरूरी था।


मैदानी भागों में तीव्र ढाल वाली जमीन बनाने के लिये कुछ-कुछ दूरी के अंतराल पर तालाब बनाए जाते थे। दो ढालों के बीच नाले बनाए जाते थे। इसीलिये अगर आप इन शहरों के पुराने मुहल्लों में सफर करें तो ऐसा महसूस होगा कि किसी मैदानी क्षेत्र की जगह पहाड़ी इलाके में घूम रहे हों। ये शहर छोटे-छोटे टीलों के शहर हैं, जहाँ वर्षा का पानी नहीं जमता। केवल नगर ही नहीं बड़ी आबादी वाले गांव भी तालाब से निकाली गई मिट्टी के टीलों पर बसाए जाते थे। जितना बड़ा गांव उतना बड़ा तालाब या कई तालाब।


वरुणा एवं अस्सी के बीच बसी वाराणसी में केवल गंगा किनारे की बात करें तो अनेक तालाब हैं, जैसे - अस्सी नाले के किनारे का तालाब, जिसकी मिट्टी पर नगवाँ इलाका बसा है। दुर्गाकुंड, लोलार्क कुंड, शिवाले का तालाब, क्रीं कुड आदि। बनारस में अभी भी वर्तमान तालाबों की संख्या 40-50 के आसपास होगी जबकि इन्हें भरने और बरबाद करने का सिलसिला जारी है। यही हाल अन्य स्थानों का भी है।


इस भौगोलिक कारण के अतिरिक्त भी तालाब बनाने के कई मजेदार सांस्कृतिक कारण हैं। हिन्दू धर्म विविधतापूर्ण तो है ही, इसके आंतरिक वर्चस्व की कथाएँ भी इसे चित्र-विचित्र बना देती हैं। गंगा नदी का बड़ा महत्त्व है। उसकी पवित्रता की क्या तुलना? लोगों ने ऐसा प्रचार किया कि मानों गंगा एवं काशी के बिना हिन्दू धर्म का काम ही नहीं चल सकता।


इसका भीतर ही भीतर विरोध हुआ। जो गंगा किनारे नहीं रहते क्या उनके लिए कल्याण का उपाय नहीं है? गंगा के समान ही जमुना, नर्मदा, काबेरी आदि को भी पकड़कर बैठने की, वर्चस्व, व्यवसाय एवं धार्मिक सत्ता कायम करने की यह तो तिकड़म हो गई। बनारस में गंगा पर गांगेय (घाटिया) ब्राह्मणों का वर्चस्व कायम हो गया, जमुना पर मथुरा के चौबे लोगों का और गया के लोगों ने तर्क दिया कि विष्णु के चरण से निकली गंगा के महत्व के कारण ही न गंगा एवं उसके किनारे बसे तीर्थों का महत्व है। गया में तो विष्णुपद् अर्थात विष्णु का चरण है। उस पर चढ़ाया जानेवाला जल गंगा जल के समान पवित्र है। इसीलिये गया के लोग दाहकर्म के बाद गंगा में अस्थि विसर्जन को व्यर्थ मानते हैं। लोग अस्थि को मंदिर की नाली के पानी के नीचे फल्गू नदी में रख देते हैं। हो गया गंगा का विकल्प।


गया में यह धारणा पेषवाई वर्चस्ववाद के बाद आई जब रानी अहिल्याबाई ने विष्णुपद मंदिर का निर्माण कराकर गयावाल ब्राह्मणों को स्थापित किया। उसके पहले की सभी पिंड वेदियां किसी न किसी छोटे-बड़े तालाब या कुंड के किनारे स्थित हैं। गया में विभिन्न काल खंडों में तालाबों तथा अन्य जलाषयों का जाल सा बनाया गया था ताकि यह तीर्थ सुंदर जलाषयों एवं स्वच्छ जल से भरा-पूरा रहे। यहां मिलान करने पर तय करना कठिन हो जाता है कि जलाषयों का क्षेत्रफल अधिक है या जमीन का? आजादी के 50 साल पहले से आज तक आधे से अधिक तालाब भरे जा चुके हैं और उन पर अब आबादी बस चुकी है।


गया, पटना, भागलपुर हो या अन्य, नदी किनारे का कोई भी शहर या कस्बा, बिना तालाब के उन्हें बसाया ही नहीं जा सकता था अगर वह नगर/नगरी किसी पठार पर नहीं हो। घाटी क्षेत्र में तो तालाब की सुविधा और सार्थकता दोनो बढ़ जाती है। वहां छोटे नालों, झरनों एवं ढाल के जल को परस्पर एक दूसरे से जोड़ कर सैकड़ों सुदर रमणीक जल स्रोत निर्मित किये जाते हैं, जिससे उस नगरी की शोभा स्वर्ग के समान हो और बात पीछे नहाने की पर्याप्त सुविधा हो।


इस प्रकार धार्मिक वर्चस्व के विरूद्ध भीतरी बगावत हुई। धर्म के व्यवसाय में बुद्ध काल से ही भीतरी बगावत के उदाहरण मिलते हैं। समानांतर उपायों का महत्त्व स्थापित करना इसकी खाश बात होती है। बनारस के राजा चेत सिंह एवं महान अघोरी साधक बाबा कीनाराम का झगड़ा मशहूर है। वे गंगा से अधिक क्रीं कुंड को पवित्र स्थल एवं क्री कुंड के जल को पवित्र मनवाने में सफल हुए। राजा को उनकी अद्मुत क्षमता के सामने नतमस्तक हीं नहीं होना पड़ा बल्कि शहर बनारस छोड़कर नदी के उस पार जाकर राम नगर में नया किला बनाना पड़ा। अन्य बातों को छोड़ भी दें तो तालाब बनवाने के बारे में ही नहीं, गंगा के रहते हुए बनारस के क्रीं कुंड में स्नान को अधिक महत्व दिया गया। तांत्रिकों की एक धारा नदी स्नान से अधिक कुंड, तालाबों, पोखरों में स्नान को अधिक महत्त्व देने लगी। नहाने वालों को क्या? वे सभी जगह नहाने लगे। क्रीं कुंड में नहाने से चर्म रोग और विशेषकर कुष्ठ ठीक होता है, यह विश्वास एवं चलन आज भी जारी है।


गंगा एवं काशी पर शैवों के एकाधिपत्य को तोड़ने के लिए सौर संप्रदाय के लोगों ने प्रयास किया। इन्होंने बनारस में 12 आदित्यों के मंदिर की स्थापना की और खगोलविद होने के कारण एक निश्चित अक्षांश-देशांतर पर ही खाश शैली में तालाब या कुंड बनवाए। लोलार्क कुंड एवं पुष्कर तालाब इसके उदाहरण हैं। इनका महत्व क्रीं कुंड की तरह प्रतिदिन का नहीं है। यहाँ ग्रहण आदि विशेष अवसरों पर स्नान का महत्त्व है। पिशाचमोचन का तालाब प्रेतों से मुक्ति के लिए विख्यात है।


मथुरा में केवल जमुना जी में स्नान से काम नहीं चलेगा। दीपावली की संध्या पर गोवर्धन पर्वत के पास के कुंड में स्नान एवं दीपदान करना पड़ेगा। पुण्य कमाने एवं भक्ति की भावना के साथ स्वास्थ्य लाभ का उद्देश्य तो तालाबों से जोड़ा ही गया अन्य अनेक कथानक भी जोड़े गए। पूरा ब्रज क्षेत्र ही तालाबों से भरा है। नदी के प्रति श्रद्धा प्रकृति का स्थान है तो तालाब मानवीय प्रयास के प्रति श्रद्धा का। ब्रज क्षेत्र तालाबों से भरे-पूरे हैं।


कबीर एवं उनके समवर्ती लोगों को नदी एवं तालाब दोनों का बढ़ता वर्चस्व ठीक नहीं लगा और उन्होंने बावड़ी एवं कुओं को महत्व देना उचित समझा। दरअसल लाख चाहने पर भी धार्मिक महत्व की नदियाँ एवं तालाब अमीर-गरीब को एक घाट पर ला देती हैं। इससे इनके वर्चस्व को काफी क्षति पहुँचती थी। अतः बाद के वैभवशाली वर्ग के लोगों द्वारा निजी तालाबों एवं मंदिरों के निर्माण की चलन के बाद तो आज के स्वीमिंगपुल की तरह अपना तालाब न होने पर किसी की आभिजात्यता पूरी ही नहीं होती थी। नदियां मनुष्य को उसकी सीमा का बोध कराती थीं। तालाब बनाकर वह एक अंश तक ‘प्रकृति विजय’ जैसे अहंकार से भीतर ही भीतर संतुष्ट होता था। चूँकि संपन्नता नदियों के किनारे अधिक थी इसलिये भी नदी किनारे के धार्मिक एवं व्यावसायिक शहरों में पर्याप्त संख्या में तालाब मिलते हैं।


हास्यास्पद हालात यह हो जाती है कि कुछ तालाबों को बाकायदा प्रेतों का निवास माना गया और वहाँ केवल प्रेतबाधा से मुक्ति के लिये ही लोग जाते हैं। बनारस में पिशाच मोचन और गया में मातंग वापी का प्रेत मुक्ति के लिये विशेष महत्त्व माना गया है। कुछ तालाबों के चबूतरे कबूतर बाजी तो कुछ शास्त्रीय गायन के लिये मशहूर रहे हैं। पूरा समाज ही तालाब के पक्ष में लगा रहा। जहाँ जिसे जो पसंद आया उसने अपनी भावना एवं सामर्थ्य तालाबों के निर्माण एवं संरक्षण में लगा दिया। सामर्थ्य के बल पर निर्माण कार्य पूरे हुए और भावना के बल पर उनका संरक्षण चलता रहा। मछली का लाभ गैर धार्मिक तालाबों से लिया जाता था या समय-समय पर गाद निकासी के समय। व्यक्तिगत तालाबों में मछली, आदि पाले जाते थे और उनके किनारे की झाड़ियां एवं बागीचे थे अन्य पक्षियों का आवास इन तालाबों को और जरूरी तथा उपयोगी बनाता था।


सच पूछिए तो नदी और तालाब का रिश्ता जुगलबंदी का रिश्ता है, रिश्ता बहुत गहरा है। अरुण कुमार जी जो पानी बाबा के नाम से हम लोगों के बीच जाने जाते रहे, उनकी समझ से लौटते मानसून में जो आर्द्रता हवा में आती है, उसका स्रोत समुद्र का पानी तो होता नहीं है तो आखिर वह हवा पानी उठाती कहां से है? इस प्रश्न के उत्तर में पानी बाबा का मानना था कि जो मैदानी क्षेत्र के झील तालाब थे, उन्हीं से मानसून की हवा अपने भीतर पानी भरती थी। यह एक शोध का विषय हो सकता है, मैं दावा नहीं कर रहा हूं लेकिन शरद काल हो या गर्मी का मौसम, भारत के मैदानी एवं पठारी क्षेत्रों में तालाब और झील से पानी उठता था हवा में पानी जाता था।


जो फलों के बगीचे, खास करके अमराई थी, आम के बगीचे थे, कहीं-कहीं अन्य फलों के बगीचे, उनसे हवा गुजरकर ठंडी हो जाती थी। इसलिए मेरे बचपन तक भयानक गर्मी के समय में घर में रहने की जगह आम के बगीचे में रहना अधिक चलन में था। उत्तरी बिहार में बाढ़ का पानी तेजी से आता था, तालाबों को भरते हुए जाता था। मगध में कई नदियां उथली हैं। बरसात में जब उनका जलस्तर उठता था, तो उनसे भी तालाब और आहर में पानी भर लिया जाता था। ढाल की ताकत का उपयोग करके तालाबों को भरने की चलन रही है और श्रृंखला के अंतिम तालाब का पानी अंततः किसी नदी में पहुंचता था। इस प्रकार जब हम देखते हैं नदी और तालाब परस्पर एक दूसरे के पूरक रूप में दिखाई देते हैं।


अगर थोड़ी सरस भाषा में कहें तो दोनों जुगलबंदी करते हुए भारतीय समाज, उसकी सभ्यता और उसके मन को पता नहीं कितने वर्ष पहले से सहज रूप से सरस करते आ रहे हैं। नदी के साथ अगर छेड़छाड़ न हो तो वह अपने सहज स्वभाव से बहती रहती है। वह प्राकृतिक है। जल ग्रहण क्षेत्र से ले कर विसर्जन स्थान तक, जहां वह दूसरी नदी, झील या समुद्र में मिलती है, वहां तक वह अपनी व्यवस्था से चलती रहेगी।


तालाब वगैरह कृत्रिम हैं। वे किसी उद्देष्य जैसे- पेय जल, खेती, पषुपालन आदि से बने होते हैं और मानव रचित हैं। अतः इनका रखरखाव, मरम्मत वगैरह जरूरी होता है। पानी कमी होने पर इनके जल के बंटवारे का भी प्रष्न उठता है। इससे व्यवस्था की पेचीदगी पैदा होती है और आपसी झगड़ों की भी कथाएं प्रचुर हैं। जल संरक्षण और नदियों में बंधे जल को बाहर निकालने की कथाएं वैदिक काल से हैं। बुद्ध के जीवन में षाक्यों एवं कोलियों के बीच नदी जल विवाद को भी उनके घर छोड़ने का कारण माना जाता है, जो केवल आपस में ही विवाह भी करते थे और हर साल युद्ध भी।


झगड़े का कारण किसी भी जलाषय के जल पर हक और उसे संपत्ति मानने के नजरिया होता है। इसकी उलझनों पर भी ध्यान देना जरूरी है।



जल को संपत्ति मानने की उलझनें


जल यदि संपत्ति है तो किस प्रकार की? इसके उत्तर मजेदार हैं। जल कभी पषुओं की तरह चलायमान तो कभी स्थिर लगता है। जल निर्जीव-सजीव के बीच के स्वभाव वाली संपत्ति है। इसमें रूप परिवर्तन कराने वाले रसायन, जीवाणु एवं जीव भी रहते हैं। जल का ठीक से भंडारण नहीं हुआ तो सड़ांध-बदबू, महामारी से लेकर पानी की मात्रा अधिक होने पर बाढ़ की घटना भी होती ही है।


नदी, बाँध, तालाब एवं नलकूप तक के जल पर पूर्ण स्वामित्व मानने वालों की जिम्मेवारी बनती है कि वे अपनी संपत्ति की रक्षा करें, साथ ही उसे संभाल कर रखें, उसे आगे बह कर बाढ़ न पैदा करनेे दें, अगर बाढ़ आए तो उसके लिये मुआवजे का भुगतान करें क्योंकि उस संचित जल पर उन्होंने उनकी संपत्ति होने का दावा कर रखा है। जल तो उनकी संपत्ति है। सरल सा सिद्धांत यह भी है कि जिस संपत्ति से क्षति हो, उस संपत्ति के मालिक को भरपाई करनी चाहिए।


इस सहज न्याय के विपरीत सच्चाई तो दूसरी ही है। बाढ़ पर नियंत्रण कैसे हो? मानसून और वर्षा तो जल पर स्वामित्व मानने वालों के बस में है नहीं? इसी तरह उपयोग किए हुए जल के निस्तारण का खर्च भी जल के मालिक को देना चाहिए पर कोई भी नहीं देता। यह कैसा रिश्ता हुआ? आधुनिक मनुष्य प्रकृति के साथ बेईमान है। प्राकृतिक संसाधनों को संपत्ति बनाने का हक तो उसनेे हासिल किया पर जल से बरबादी के समय एवं जल संग्रह आदि अन्य मामलों में भी वह जिम्मेवारी से भाग जाता है। पानी के मामले में तो हजारों साल से बेईमानी चल रही है। पानी का स्वभाव चल संपत्ति के प्रकार का है। किसी की गाय या बकरी दूसरे का खेत चर जाती है। दूध पर हक किसी का और खेत किसी दूसरे का। इस तरह पानी के संपत्ति बनने-बनाने की ऐसी पेंच फँसी हुई है कि किसी न्यायपालिका या विधायिका द्वारा इसे संपत्ति मानकर न्याय करना संभव नहीं है।


पारंपरिक लोगों ने कुछ उपाय सोचे थे। अन्तर्राष्ट्रीय कानूनी निणर्यांे में भी इस पर ध्यान दिया जाता है-


धार एवं निगार का सिद्धांत


पानी का मूल आगमन स्रोत ऊपर की जगह पर वर्षा, हिमपात कुहासे आदि की प्राकृतिक प्रक्रिया से गुरुत्वाकर्षण के विपरीत जल का पहुँचना है और पुनः ढाल की ओर गुरुत्वाकर्षण बल से आगे बढ़ते हुए समुद्र तक पहुँचाना है। अरुण कुमार ‘पानी बाबा’ को किसी महिला ने कहा - पानी पर पहला हक समुद्र का क्योंकि पानी आता तो समुद्र से ही है। पुनः समुद्र ही नदियों के प्रवाह को अंतिम रूप से अपने में समेट भी सकता है। उसका भंडार ही सबसे बड़ा है।


पानी के आने से सुख है, वह भी पर्याप्त मात्रा में आने से ही सुख है, कम होने पर दुख है लेकिन यह दुख पानी के माध्यम से दूसरों को दुख देने की विवशता नहीं लाता लेकिन उपयोग एवं भंडारण की सीमा से अधिक पानी को नीचे की ओर जाने देना पड़ता है, जो ऊँचाई वाली जगह जो किसी दूसरे के स्वामित्व वाली जगह से गुजरता है। अतः समझदार लोगों ने नियम बनाया कि ऊपर से आनेवाली पानी की धारा पर भी सबको हक है। मतलब कि धारा रुके नहीं, नीचे तक बहे और ‘निगार’ पर भी हक हो। अर्थात नीचे वाला व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि ऊँची जगह का पानी नीचे नहीं छोड़ा जा सकता? इस पानी लाने एवं निकासी में अगर किसी को हानि होती भी है तो उसे मिलकर सहन करना होगा। लाभ में साथ तो हानि में भी साथ। किसान आज भी इसी परंपरा पर मोटे तौर पर पर चल रहे हैं परंतु ताकतवर सरकारें तो नियम मानती नहीं हैं। भारत में काबेरी का विवाद सुलझ नहीं रहा। बिहार, झारखंड, उत्तर-प्रदेश, छत्तीस गढ़ के बीच भी आने वाले दिनों में विवाद बढ़ने ही वाला है क्योंकि ‘धार’ पर संपत्ति वाली दृष्टि है और ‘निगार पर’ गटर वाली कि पानी का काम है बनना चाहे वह सड़क पर बहे, खेत में, नदी में या पड़ोसी के घर में।


गंभीर चिंतन


कुछ लोगों ने शुरू से ही पानी पर गंभीरता से अध्ययन कर इसके गुण-धर्मो के अनुसार इसका वर्णन किया और पानी के साथ जीने की कला विकसित की। इस चिंतन की मुख्य बातें संक्षेप में इस प्रकार से हैं:-


1. पानी सृष्टि के आधारभूत तत्वों में एक है।

2. मूलतः आकाश का पानी दिव्य है। इसमें रूप, रस, गंध कुछ नहीं होता।

3. पृथ्वी के संपर्क में आने के बाद उसके गुण-धर्मांे में पृथ्वी के साथ स्थानीय संपर्क के अनुसार परिवर्तन होते हैं।

एकेन वर्णन रसेन च चाम्भश्च्युतं नभस्तो वसुधा-विशेषात्।

नाना रसत्वं बहुवर्णतांच गतं परीक्ष्यं क्षितितुल्यमेव।। उदकार्गलाध्याय, बृहत्संहिता, वराह मिहिर।

एक वर्ण एव रस से (युक्त) आकाश से गिरने वाला जल पृथ्वी विशेष (क्षेत्र भेद से) के कारण अनेक रस एवं वर्ण वाला हो जाता है। इसकी परीक्षा (उस) पृथ्वी के अनुसार ही करनी चाहिए।

4. समुद्र का जल अथाह है।

5. बहता हुआ जल निर्मल होता है।

6. जल मल की शुद्धि की करने वाला होने से पुण्यदायी है।

उदकार्गलाध्याय, बृहत्संहिता, वराह मिहिर।

7. कृत्रिम जलाशयों का निर्माण सामाजिक कार्य है और पेयजल के जलाशयों का निर्माण पुण्यदायी कार्य । इसे परोपकार की भावना से किया जाना चाहिए ।

8. जल के प्रवाह को पूर्णतः अवरुद्ध नहीं करना चाहिए। महान लोग वे हैं, जिन्होंने अवरुद्ध जल के प्रवाह को पुनः अवरोध मुक्त कर प्रवाहित करने का काम किया, जैसे- राजा भगीरथ। वैदिक सूक्तों में भी नदियों के जल को अवरुद्ध करनेवाले असुर और उसे प्रवाहित करनेवाले देव माने गए हैं।

9. प्राकृतिक शक्तियों एवं संसाधनों पर कब्जा जमाने का प्रयास तो देव, असुर, मनुष्य तथा अन्य ने भी किया है पर इन्हे किसी भी राजा या ताकतवर द्वारा पूर्णतः अपने अधीन करने पर उसे असुर, राक्षस या शैतान कहा गया है और उससे लड़कर प्राकृतिक संसाधनांे को मुक्त करानेवाले को उद्धारक जैसी प्रतिष्ठा दी गई है। पानी पर कब्जे की चर्चा हर कथा में है।


इन नैतिक मान्यताओं के बाद भी तालाब, झील, आहर, खड़ीन, कुंड, जैसी भूमि आधारित संरचनाएँ बनाई र्गइं। चुँआ, बावड़ी, कुँआ, नलकूप, सुरंग, जैसी भूमिगत संरचनाएँ भी बनाई गईं। इन पर इनका निर्माण करने वाले, एवं कराने वाले लोगों ने चाहे वे राजा, सामंत या समुदाय कोई भी हों, अपना हक तो माना ही। कुछ ने उदार दृष्टि रखी, कुछ ने अनुदार। जहां भी धर्म भावना से काम हुआ, वहाँ समुदाय एवं समाज से बढ़कर जीव मात्र तक को जल के सुख पूर्वक भोगने की स्वीकृति मिली है। नियम भी प्रायः जलाशयों की सुरक्षा से संबंधित हैं। इस प्रकार पानी धीरे-धीरे जैसे-जैसे समृद्धि का आधार बनता गया वह संपत्ति का निर्माता तथा वाहक बनते-बनते संपत्ति भी बनने लगा। सबसे पहले जलाशयों से सिंचाई के लिए रख-रखाव हेतु कर का प्रावधान हुआ, फिर राजा के स्वामित्व के आधार पर कर की बात आई, फिर जिस समुदाय या परिवार ने जलाशय बनाया उसे शुल्क देने की परंपरा विकसित हुई और बाद में जल की बिक्री जैसी अवधारणा भी सम्मिलित हो गई।


लिखित श्रोतों में कौटिल्य तथा अन्य के अर्थशास्त्र नाम वाले ग्रंथ, राजाओं के शिलालेख एवं अन्य विवरण देखे जा सकते हैं। मगध एवं तेलांगना में सामुदायिक जल प्रबंधन आज भी जारी है। सारी बातें रजिस्टरों में दर्ज रहती हैं। नए कानून ने भी उनकी मान्यता को पूरी तरह समाप्त नहीं किया है।



कर, शुल्क एवं कीमत का अंतर


कर- तालाब, झील जैसे जलाशयों या आहर-पइन जैसी प्रणालियों के जल पर लगाए जाने वाले कर सिंचित भूमि एवं उत्पादित अन्न इन दो आधारों पर तय होते थे। अन्न आधारित कर के मामले में अन्न का एक हिस्सा राजा वसूलता था। अतः जलाशय के रख-रखाव में उसकी सहज रुचि थी क्योंकि लाभ या हानि उत्पादन के समानुपातिक थी। उत्तरी भारत में उसे ‘भाउली’ कहा जाता था। जमीन आधारित सिंचाई शुल्कः अभी भी तालाबों तथा नहरों से सिंचाई शुल्क के रूप में चलन में है लेकिन अब इसे कर कहा जाता है। कर अनिवार्य होता है। उसकी वसूली के प्रावधान कठोर होते हैं।


शुल्क:- जो संस्था राजा नहीं है वह शुल्क की अवधारणा पर निर्भर है और उद्येश्य है- रख-रखाव एवं कर्मचारियों के वेतन आदि का भुगतान। इसमें कर की तरह अनिवार्यता का नियम न हो कर लाभ-हानि की दृष्टि आती है। पहले लाभ और भुगतान की दृष्टि आई। जलाशय से पानी लें और शुल्क का भुगतान करें। इसके बाद एक नई अवधारणा भी आई कि अगर जलाशय के रख-रखाव एवं व्यवस्था में त्रुटि के कारण किसी को हानि पहुंचती है तो उसे क्षतिपूर्ति भी मिलनी चाहिए। क्षतिपूर्ति के सिद्धांत को बहुत पहले ही विधिवत कानूनी मान्यता भी मिली। ब्रिटिश राज तक के कानून में इसके प्रावधान मिलते हैं। स्वतंत्रता के बाद सरकारें बाध्यकारी जिम्मेवारी से भागने लगीं तो क्षतिपूर्ति का सिद्धांत ने धीरे-धीरे दम तोड़ दिया। नैगमिक व्यवस्था (कारपोरेट) में तो यह बहु राष्ट्रीय या राष्ट्रीय कंपनियों के लिए सबसे अनुकूल बात है।


शुल्क में रोज-बरोज उतार चढ़ाव नहीं होते और पानी को निश्चित माप की ईकाईयों में उतना कस कर नहीं बांधा गया था। मेरे गाँव में मेरे घर मीठा पेयजल पहुँचाने के एवज में पनिहारिन को सालाना मजदूरी और पुरस्कार मिलते थे। गर्मी में पानी अधिक, जाड़े में कम खर्च होता था। घर के लोग बाहर जाएं या अतिथि आएँ भुगतान में अंतर नहीं होता था। जरूरत मुख्य बात थी, इकाई माप नहीं। अब जब हम शहर में बोतलबंद बड़ा जार भी लेते है तो यह मूल्य होता है, शुल्क नहीं।



मूल्य तथा शुल्क एवं मूल्य का अंतर


मूल्य निर्धारण के लिए इकाई माप का निर्धारण करना पड़ता है। जहाँ कहीं भी इकाई माप आ जाय और उस आधार पर भुगतान करना पडे़ तो समझें कि यह मूल्य हो गया, चाहे उसका नाम शुल्क हो या कर ।


मूल्य बाजार के सिद्धांतों पर चलता है। सहज एवं कृत्रिम दोनों प्रकार के माँग-पूर्ति के नियम यहाँ लागू होते हैं। अपने कुएँ के पानी को ढो कर घर पहुँचाने का श्रम मूल्य पानी के लिए शुल्क है, मूल्य नहीं। नदी या डैम का पानी नगरपालिका नागरिकों को देती है और रख-रखाव का खर्च वसूलती है तो वह शुल्क है क्योंकि मूल सामान पानी तो सार्वजनिक है लेकिन बोतलबंद पानी पर उस कंपनी का पूरा हक होता है और कहीं भी लोगों को हित करने जैसी कोई बाध्यता नहीं होती ।आज धीरे-धीरे शुल्क एवं मूल्य के अंतर को समाप्त किया जा रहा है। कर को शुल्क और फिर शुल्क को मूल्य में परिवर्तन करने की प्रक्रिया चल रही है ताकि पानी को पूर्णतः बाजारू वस्तु बनाया जा सके।



खान, खनिज एवं प्राकृतिक संसाधन तथा जल


मनुष्य सतह पर पाए जाने वाले खनिजों के उपयोग के बाद अतल गहराइयों से खनिज निकालने के साथ गर्मियों में रेत के भीतर से गीली जगहों की खुदाई कर चुँआ, कुँआ और बाबड़ी बनाने की ओर अग्रसर तथा सफल हुआ। यह सफलता एक ओर गहरे कूप-नलकूपों की ओर उसे ले गई तो साथ ही तकनीक, समाज एवं राज्य की समकालीन मान्यताओं ने उन संरचनाओं से निकाले जाने वाले जल को संपत्ति मानकर व्यवहार करने की छूट दी।


राज्य खनिज आदि प्राकृतिक सामग्रियों को अपनी संपत्ति मानता है और रायल्टी लेकर उसका व्यापार करने की अनुमति देता है। राज्य की संप्रभुता के अर्थ की व्याख्या एवं विस्तार से रायल्टी से लेकर मूल्य तक को संरक्षण मिलता है। पहले राज्य के साथ समुदाय की संपत्ति की अवधारणा भी स्वीकृति थी।


आंशिक तैार पर भारत में राज्य, समुदाय एवं व्यक्ति तीनों की संपत्ति जैसे अन्य मामलों में मान्य है, उसी प्रकार पानी के मामले में भी है। हाँ, क्षतिपूर्ति के मामले में बेईमानी को पूरा सरंक्षण है। डूब क्षेत्र एवं सिंचित क्षेत्र के बीच सीधा संबंध नहीं है। छोटी संरचनाओं में ऐसा नहीं होता था। इसी तरह प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के दुष्परिणामों के बाद भी लाभार्थी पर भरपाई का बोझ नहीं डाला जाता।


अंत में एक बात और। खनिज से भिन्न जल का प्रतिवर्ष नवीकरण होता है। वर्षा नया भंडार देती है। इस संदर्भ में लगभग सभी जगहों पर बेईमानी यह है कि दूसरे की जगह पर बरसे हुए जल को संचित कर उपयोग हम करें और अधिक होने पर या उपयोग हो जाने के बाद उसे नीचे की ओर बहा दंे, जिससे तीसरे की हानि हो। मेरी गाय दूसरे का खेत चरे, दूध हम पिएँ और गोबर सड़क पर फेंके। इसमें न नीति है, न न्याय पर राज्य के द्वारा मौन, सहमति और संपोषण के बल पर तमाम कलह अभी भी चल रहे हैं। पानी बहुमूल्य है तो झगड़ों के बहानों की क्या कमी रहेगी?


रवीन्द्र कुमार पाठक

मो. 9431476562

इमेल rkp.gaya@gmail.com

संयोजक, मगध जल जमात

एवं

विभागाध्यक्ष स्नातकोत्तर पालि विभाग तथा बौद्ध अध्ययन विभाग, गया, बिहार



River, Pond and Society

Ravindra Pathak


Summary of the paper provided by the author:


The article delves into the rich history and tradition with deep-rooted cultural significance of rivers, ponds, and water management in Indian society. It paints a vivid picture of how the people of ancient and traditional Indian society engaged with water. The article explores the historical significance of rivers, ponds and water management in Indian society. It highlights how ancient communities were closely connected to water bodies, using them for farming, fishing and daily activities. Traditional water storage methods, like lakes, wells and reservoirs, played a vital role in maintaining societal balance.


However, with the advent of modern technologies like dams and tube wells, the emphasis on traditional water management practices have diminished. The article emphasizes the need to preserve these practices and discusses the intricate relationship between rivers and ponds. Even cities along major rivers constructed numerous ponds to ensure water availability.


The piece touches upon the religious and cultural significance attached to water bodies. For instance, it discusses how certain ponds were considered sacred and integral to the religious practices of specific communities. It also mentions that water bodies were often associated with social status, with affluent individuals constructing private reservoirs as a symbol of their dominance over nature. The article raises the issue of water ownership and how conflicts have arisen over the rights to water resources. It points out that rivers and water resources should ideally be viewed as common property, and the flow of water should be allowed to benefit everyone downstream. However, over time, dishonest practices and lack of responsibility have led to disputes and complications related to water management. The article touches on the religious and cultural significance of water bodies and the concept of water ownership, leading to conflicts over resources. It explains the principles of taxes, tariffs and fees related to water management. In conclusion, the article calls for ethical water management, highlighting the continuous replenishment of water through rainfall. It stresses the importance of preserving traditional practices and responsibly utilizing this essential resource in modern times.


The article laments the gradual decline in the understanding and appreciation of traditional water management practices, owing to the advent of modern technologies like dams and tube wells.


Dr. Ravindra Pathak (Cell: 9431476562; email: rkp.gaya@gmail.com) is the HOD of Pali and Buddhist Study Department in the post graduate college of the autonomous Magadh University, Bodhgaya, Bihar. He leads an civil society group called Magadh Jal Jamaath which studies and advocates on water related issues in the Magadh region near Gaya. He has a special interest in traditional science, technology and philosophy in different sectors, water being one of them.






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jksuresh60
Aug 12, 2023

A test comment please ... You may delete this after publishing, if you like. Or before, if you dont.

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